Thursday, 20 January 2011

Jal Samadhi

यह जो मेरे साथ
कुछ अनसुलझा सा चलता है
वो तुम ही हो
जो मुझे समझ नहीं आते
जमी हुई नदी की
पतली बर्फ की सतह पर
तुम्हे जानने के लिए
सावधानी से बढ़ता हूँ
और अचानक  गुप! से गिर जाता हूँ
ठन्डे पानी में

वो डूबकी
जैसे रोम रोम में सुइयां चुभा देती है 
और पल भर में  कंपता मैं 
किसी कार्क की तरह

फिर सतह पर आ जाता हूँ
पानी के मंथन में
हिचकोले खाता हुआ
किनारे को खोजता
लेकिन सतह पर तैरते रहने से
गहरायी की थाह तो नहीं मिलेगी
क्यों नहीं में डूबता चला जाता
जल तल में
समाधी में
सर के ऊपर जल और उसके भी ऊपर संसार
और तल में बैठा मैं
तुम्हे समझने के लिए शायद डूबना ही पड़ेगा

2 comments:

Unknown said...

I can so much relate to the feeling portrayed here. Thanks for giving it the right words :)

tunafish said...

Very deep thoughts :) and true...to know something completely, you will have to go into it completely.